पूर्ववर्ती कांग्रेस की सरकार में जितनी आजादी विधायकों को बीते पांच साल में मिली, वो किसी से छिपी नहीं रही। इस स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता समझने वाले प्रत्याशी विधानसभा चुनाव में निपट गए। लेकिन दोनों हाथ से राज और राजकोष लुटाने वाले गहलोत का संघर्ष अलग ही रहा। दोनो हाथ न लुटाते, तो विधायक खिसक जाते। कोई पायलट खेमे में चला जाता, तो कोई भाजपा चला जाता। लेकिन अब राज भी गया और नेता भी चलते बन रहे हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के इनर सर्किल के नेताओं के खिसकने की खबरे आने लगी हैं। दिनेश खोडनिया, मानशंकर निनामा, राजेन्द्र यादव, लालचंद कटारिया, महेन्द्रजीत सिंह मालवीय भाजपा का दामन थामने जा रहे हैं। उठापटक और भी होनी है, अभी तो लोकसभा के मद्देनजर शुरूआत हुई है, लेकिन बड़ी फेहरिस्त की यह नेता पहली कड़ी मात्र हैं। देखने वाली बात है कि इस प्रस्थान में पायलट के नहीं, बल्कि गहलोत के खास नेता खिसक रहे हैं।
क्या गहलोत का किला ढह रहा है?
गहलोत ने उतना राज किया है, जितनी सचिन पायलट की उम्र है। पायलट को गहलोत राज सौंप नहीं पाए। लेकिन जनता ने भाजपा को राज सौंप दिया। अब एक-एक कर नेता खिसकने लगे, तो गहलोत का रानीतिक किला ढहने की शुरूआत कही जा रही है। इस बात के चर्चे गलियारों में होने लगे हैं कि गहलोत का राज अब कभी नहीं लौटेगा। पोटेंशियल नजर नहीं आने के चलते, नेता खिसक रहे हैं। उन्हें गहलोत का भविष्य नहीं दिखाई दे रहा तो खुद का भविष्य कहां देखेंगे। ऐसे ही चर्चों के बीच सचिन पायलट का क्रेज लगातार बढ़ता देखा जा रहा है। पायलट जहां जा रहे हैं, जनता टूट कर पड़ रही है। ऐसे में गहलोत को यह साबित करना भारी पड़ सकता है कि उनका दम अभी बरकरार है।
लोकसभा के नतीजे, बचा पाएंगे संभावना कम
गहलोत का प्रभाव और मोदी का मैजिक दोनों की टक्कर राजस्थान में लोकसभा की सीटों पर देखने को मिलेगा। लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि राम मंदिर मुद्दे के बाद भाजपा का संघर्ष अब इतना बड़ा बचा नहीं है। ऐसे में एक-एक सीट गहलोत के लिए भारी पड़ सकती है। इस बात के भी सत्ता के गलियारों में चर्चे भरपूर हैं कि विधानसभा में गहलोत ने अपने पुराने मित्रों और मण्डली को ऑब्लाइज करने के लिए सत्ता गवां दी। ऐसे नेताओं को टिकट बांट दिए, जिनके जीतने की संभावना ना के बराबर थी। ऐसे में टिकट वितरण में गहलोत का जोर चला, लेकिन नतीजों पर नहीं चल पाया और सत्ता गंवा बैठे।
गहलोत दिल्ली जाते और सत्ता पायलट के हाथ होती, तो अंतर दिखता
मई 2023 में कांग्रेस के उदयपुर में आयोजित हुए अधिवेशन के दौरान गहलोत के दिल्ली जाने और पायलट को सत्ता सौंपने की खबरें चर्चा में आई थी। गहलोत उन खबरों से घबराए भी थे। खबरें चलाने वाले पत्रकारों तक पहुंच बनाकर रोकने के प्रयास भी किए गए लेकिन विफल रहे। हालांकि इस माहौल को बदलने के लिए गहलोत ने पूरा जोर लगा दिया था। सत्ता में बने भी रहे, लेकिन फायदा क्या हुआ? फायदा किसको हुआ? पार्टी को या कार्यकर्ताओं को तो कुछ हाथ आया नहीं, गहलोत को जरूर कुछ हाथ आया होगा। सालभर राज ज्यादा कर पाए, लेकिन गलियारों में चर्चे हैं कि उस सत्ता भोगने की भारी कीमत कांग्रेस ने विधानसभा में चुकाई थी और अब लोकसभा में भी चुकानी पड़ सकती है।
बहरहाल देखना होगा कि आदिवासी नेताओं के खिसकने से शुरू हो रहा सिलसिला कहां थमेगा? ऑपरेशन लोटस राजस्थान में ऑन हो चुका है, क्या गहलोत के पास अब भी पॉलिटिकल जादूगरी की कुछ संभावना बची है या फिर मोदी मैजिक के आगे गहलोत सरेंडर हो जाएंगे? और ज्यादातर सीटें लोकसभा में मोदी के खाते में चली जाएंगी। अगर नेताओं की छीजत की जैसी चचाएं हैं, वैसे नेता निकलते चले गए थे निश्चित ही गहलोत के लिए भारी पड़ सकता है। पार्टी जवाब मांगेगी, गहलोत जवाब देने जैसा कुछ बचा पाएंगे या नहीं यह देखना होगा? या फिर हर बार की तरह ठीकर जनता पर फोड़ देंगे और चुनाव परिणाम आते ही जिम्मेदारी लेने की बजाए कहा जाएगा कि जनता जनार्दन का आदेश स्वीकार है।