जोधपुर। एक युवा नेता जिसने 6 साल पहले रात 2 बजे जयनारायण व्यास विश्वविद्याल जोधपुर में अध्यक्ष पद पर 9 वोटों से जीत दर्ज की थी, आज निराश और नर्वस है। उनके कार्यकर्ताओं में भी छिनते भरोसे की कसमसाहट साफ देखी जा रही है। सिर्फ एक सवाल बीते दो दिनों से बॉल की तरह इधर से उधर हो रहा है कि आखिर हुआ क्या? 6 साल पहले की जीत से इस युवा नेता सुनील चौधरी ने साबित किया था की उनमें लीडरशिप के गुण हैं। क्योंकि जय नारायण व्यास विश्वविद्याल के छात्रसंघ चुनाव को कभी कमतर नहीं आंका जाता। एनएसयूआई की ओर से सुनील चौधरी ने तब जीत दर्ज की थी, जब राजस्थान विश्वविद्यालय सहित पांच विश्वविद्यालयों में निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे। चौधरी ने इस दौर में एबीवीपी के मूलसिंह राठौड़ को हराया था। लेकिन यही दमदार युवा अर्से से वैभव गहलोत के कंधे से कंधा मिलाकर उन्हें मजबूत करने में जुटा हुआ था। विधानसभा चुनाव भी बीते साल गुजर गए। इस बार लोकसभा में टिकट की उम्मीदें चौधरी को बंधाई गई थी, वह भी अब टूट गईं, जब पाली से कांग्रेस ने संगीता बेनीवाल को उतार दिया। जबकि इशारा मिलने और सालों तक वैभव का वैभव बरकरार रखने में जुटे सुनील चौधरी को पूरा भरोसा था कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाएगा।
इधर सुनील चौधरी के जूनियर और 2019 में जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय के निर्दलीय अध्यक्ष जीते रविन्द्र सिंह भाटी शिव से विधायक बन चुके हैं। जहां सुनील चौधरी वैभव और गहलोत परिवार के साथ आगे बढ़ने के फैसले पर टिके रहे, वहीं रविन्द्र सिंह भाटी ने इस विचार के विपरीत अपनी राह खुद चुनी। न किसी बडे नेता का दामन थामा, न किसी के भरोसे रहे। अपने दम पर मैदान में कूद गए और साबित किया। लेकिन सुनील चौधरी के केस ने न केवल जोधपुर और पाली में कांग्रेस के युवा कार्यकताओं का मनोबल तोड़ दिया है, बल्कि एक उभरते नेता को दबा दिया गया है।
कायदे से देखो, तो वैभव का सालों से साथ निभा रहे सुनील चौधरी राजनीति के मामले में वैभव से ज्यादा काबिल हैं। वैभव अपने पिता के भरोसे राजनीति में आगे बढ़ रहे हैं। आरसीए का चुनाव हो या 2019 में जोधपुर से लोकसभा चुनाव, वैभव के पिता मुख्यमंत्री न होते या उनका नाम अशोक गहलोत न होता, तो शायद एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह वैभव भी दरियां उठाने की बात कर रहे होते। लेकिन वैभव को इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। वहीं सुनील चौधरी ने अपने दम और मेहनत पर छात्रसंघ चुनाव क्रैक करके दिखाया। वैभव को इस बार भी सेफ सीट दिलाने के चक्कर में जालोर-सिरोही से गहलोत टिकट दिला लाए। क्योंकि अशोक गहलोत जानते थे कि जोधपुर से वैभव फिर जीत नहीं पाएंगे। हालांकि इस बात की कौन सी गारंटी है कि वैभव जालोर-सिरोही सीट निकाल ही लेंगे? लेकिन इस बार का चुनाव हारने के बावजूद वैभव दो बार लोकसभा चुनाव कांग्रेस की टिकट पर लड़ने का अनुभव पूरा कर चुके होंगे। ऐसे में वैभव का करियर कहीं न कहीं सेट करने के प्रयास में गहलोत भविष्य में कामयाब हो सकते हैं, लेकिन सुनील चौधरी के राजनीतिक करियर को शुरू होने से पहले ही दबाने की कवायद शुरू कर दी गई है। वही गहलोत परिवार जिसके लिए चौधरी रातदिन जुटे रहते हैं, सुनील चौधरी और उनके कार्यकर्ताओं का भरोसा नहीं जीत पाया। इधर लोगों में तो इस बात के भी चर्चे हैं कि अशोक गहलोत अड़ जाते, तो सुनील चौधरी की टिकट जरूर लाते, लेकिन वैभव के लिए आराम से टिकट आ गई और चौधरी को साइडलाइन कर दिया गया।
इधर अब जोधपुर में वैभव और सुनील की काबलियत और अचीवमेंट के चर्चों के बीच यह भी चर्चा है कि अशोक गहलोत सुनील चौधरी को जोधपुर या आसपास विधानसभा-लोकसभा का बड़ा चेहरा कभी नहीं बनने देंगे, क्योंकि वैभव और सुनील हमउम्र हैं, ऐसे में आने वाले दौर में वैभव से बडेÞ नेता के तौर पर किसी को अपने ही हाथों स्थापित करना, गहलोत के लिए भारी पड़ रहा है। या तो यह चर्चा सही है, या फिर गहलोत अब क्या करेंगे, जिससे यह साबित हो कि वह चौधरी के लिए औसत से ज्यादा सोचते हैं, वह मानते हैं कि चौधरी भी अच्छी लीडरशिप रखते हैं और उन्हें आना चाहिए। अब यह तो वक्त ही बताएगा कि लोगों की चर्चा सही है या गहलोत की सोच। लेकिन अब गहलोत को इस रिश्ते के लिए बहुत कुछ साबित करना बाकी रहा गया है। जबकि गहलोत मुख्यमंत्री रहते भी चौधरी को कोई पद दिला सकते थे, लेकिन वहां भी उन्होंने चौधरी को इस उम्मीद से दूर ही रखा।
चौधरी ही नहीं ऐसे प्रदेशभर में दर्जनों युवा हैं, जो बडे राजनीतिक बरगदों के नीचे अपने नन्हें राजनीतिक पौधे को मरता हुआ देख रहे हैं। रोज सपनों को टूटता हुआ देख रहे हैं और किसी के सपनों के लिए जान झोंके जा रहे हैं। ऐसे युवाओं को अपने दायरों को तोड़ना चाहिए। परंपरागत सोच, विचार और भक्तिभाव से बाहर आकर ताल ठोकनी चाहिए। वर्ना बड़े नेता, छोटे लॉलीपॉप दे देकर जाने कितने ही युवा नेताओं का राननीतिक करियर ऐसे ही तबाह करते रहेंगे।